राज विद्या योग सभी प्रकार के ज्ञान में श्रेष्ठ और गहन ज्ञान है।
श्रद्धाविहीन लोग ईश्वर को न प्राप्त होकर जन्म-मरण के बंधन में बंधकर इस संसार में विचरते रहते हैं।
यह संपूर्ण ब्रह्मांड ईश्वर से व्याप्त है और सभी प्राणी ईश्वर में निवास करते हैं, लेकिन ईश्वर उनमें नहीं हैं।
सभी प्राणियों के रचयिता होने पर भी ईश्वर प्राणियों से प्रभावित नहीं होते।
कल्प के आदि में सभी प्राणी समुदाय प्रकट होते हैं और कल्प के अंत में विलीन हो जाते हैं।
प्रकृति भगवदाज्ञा अनुसार इस जीवन चक्र को चलाती रहती है।
भगवान के मनुष्य रूप को मूर्ख लोग नहीं पहचान पाते।
ऐसे मनुष्य प्राकृत शक्तियों से मोहित होकर आसुरी और राक्षसी वृत्तियों को धारण करते हैं।
महात्मा जन दैवी शक्ति का आश्रय लेकर ईश्वर को पहचान कर अनन्य भक्ति में लीन हो जाते हैं।
वे सदैव ईश्वर की योगशक्ति का कीर्तन करते हुए प्रेम-भक्ति से आराधना करते हैं।
वहीं कुछ लोग ज्ञानयज्ञ और ईश्वर की ब्रह्मांडीय अनंत अभिव्यक्ति की पूजा करते हैं।
भगवान एक बार फिर से अपनी प्रकृति बताते हुए कहते हैं कि
क्रतु मैं हूँ, यज्ञ, तर्पण, औषधि, मंत्र, घी, अग्नि और यज्ञ का कर्म — सब मैं हूँ।
मैं ब्रह्मांड का माता, पिता, पितामह और आश्रय हूँ।
मैं "ॐ", ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेद हूँ।
मैं सभी प्राणियों का लक्ष्य हूँ।
मैं ही सूर्य को तपाता हूँ, वर्षा भी मैं ही करवाता हूँ।
अमरत्व और मृत्यु — दोनों भी मैं ही हूँ।
वेदों के अनुसार आचरण करने वाले स्वर्गादि दिव्य लोकों को प्राप्त होते हैं,
और पुण्य शेष हो जाने पर वापस पृथ्वीलोक में लौट आते हैं।
जो ईश्वर को भजते हैं, उनकी रक्षा स्वयं भगवान करते हैं।
जो अन्य देवताओं की पूजा करते हैं, वे भी त्रुटिपूर्वक भगवान की ही पूजा करते हैं।
जो जिसे पूजते हैं, वे अंततः उसी को प्राप्त होते हैं।
भक्ति और श्रद्धा से जो भी ईश्वर को भेंट दिया जाता है — भगवान उसे सगुण रूप से ग्रहण करते हैं।
भगवान अर्जुन से कहते हैं:
“जो भी कर्तव्य कर्म हैं, सब मुझे अर्पण कर दो।
ऐसा करने से तुम सभी शुभ-अशुभ कर्मों के बंधन से मुक्त हो जाओगे।”
भगवान अपने सभी प्राणियों में समभाव रखते हैं और अपने भक्तों के हृदय में वास करते हैं।
कोई पापी भी यदि मेरी अनन्य भक्ति करता है, तो वह साधु ही है।
मेरे भक्त का कभी नाश नहीं होता।
"तू मेरा हो, मेरी भक्ति कर, मेरा पूजन करने वाला बन, मुझे नमस्कार कर।
अपनी आत्मा को मुझमें तल्लीन कर दो — तुम मुझे ही प्राप्त हो जाओगे।"