इस अध्याय में भगवान, पूर्व के अध्याय में वर्णित कर्मयोग का मूल्यांकन करते हुए कहते हैं कि कर्मफल की कामना से रहित होकर अपने स्वाभाविक कर्म को करने वाला ही सच्चा संन्यासी (योगी) होता है।
संन्यास योग से पृथक नहीं होता है, और बिना आसक्ति के किया गया कर्म साधना कहलाता है।
नए साधक के लिए आसक्तिरहित कर्म साधन है, और योगरूढ़ पुरुष के लिए ध्यान ही साधन है।
जो पुरुष आसक्तिरहित कर्म करते हैं या कर्मफल का त्याग कर चुके हैं और इन्द्रियविषयक कार्यों में आसक्त नहीं हैं — वे पुरुष योगरूढ़ कहलाते हैं।
अपना कल्याण चाहने वाले पुरुषों को अपना उत्थान स्वयं ही करना चाहिए और यह सुनिश्चित करना चाहिए कि स्वयं का पतन न हो।
अपने मन पर विजय प्राप्त करने वाले पुरुष स्वयं ही अपने मित्र हैं, और जब यही मनुष्य अपने मन से पराजित हो जाए, तो वह स्वयं ही अपना शत्रु बन जाता है।
ऐसे योगी जो अपने मन पर विजय प्राप्त कर चुके हैं, वे सभी परिस्थितियों में सम रहते हैं।
ऐसे जितेन्द्रिय पुरुष के लिए सभी सांसारिक पदार्थ और समस्त प्राणी एक समान होते हैं।
योग की अवस्था के लिए मन को शांत कर, एकांत स्थान में बैठकर, विचारशून्य होकर अपनी नासिका के अग्रभाग पर दृष्टि केंद्रित कर ध्यान लगाना चाहिए।
इस प्रकार अपने मन को संयमित कर ईश्वर में ध्यान लगाना चाहिए।
यह योग, संतुलित आहार-विहार और शयन करने वालों का सिद्ध होता है — इस प्रकार के योग दुःख को दूर करने वाले होते हैं।
जिस अवस्था में एक योगी का मन भौतिक क्रियाओं से हटकर योग में लग जाता है, तब वह परमात्मतत्त्व को प्राप्त कर असीम आनंद का अनुभव करता है — यह समाधि की अवस्था होती है।
इस अवस्था में स्थित योगी पहले स्वयं में परमेश्वर को और परमेश्वर में समस्त जीवों को देखता है।
ऐसी अवस्था के बारे में सोचकर अर्जुन दुविधा में आकर पूछते हैं कि योग की यह अवस्था मन के एकाग्र होने पर आती है,
लेकिन मैं मन का एकाग्र होना वायु को वश में करने के सदृश दुष्कर मानता हूँ।
इस शंका पर भगवान अपनी सहमति देते हुए कहते हैं कि मन को अभ्यास और वैराग्य से नियंत्रित किया जा सकता है।
पुनः अर्जुन प्रश्न करते हैं कि जो योगी योग में असफल हो जाते हैं, उनकी क्या गति होती है?
इसका उत्तर देते हुए भगवान कहते हैं कि धर्म के मार्ग पर चलने वालों का कभी नाश नहीं होता है।
वे अपने कर्मफल को जन्म-जन्मांतर तक संचित कर ईश्वर के परमधाम को प्राप्त कर लेते हैं।