इस अध्याय से भगवान ज्ञानयोग के विषय में बताना शुरू करते हैं, जो कि अगले छह अध्यायों में विस्तारित है।
इस अध्याय के प्रथम श्लोक में ही अर्जुन पूछते हैं कि प्रकृति, पुरुष, क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ, ज्ञान और ज्ञेय (ज्ञान का लक्ष्य) क्या हैं?
भगवान कहते हैं कि यह शरीर "क्षेत्र" है, क्योंकि इसी शरीर में संचित कर्मों का फल प्रकट होता है।
इस क्षेत्र में अंतर्यामी रूप में परमेश्वर का वास है — इसे जानने वाला ही क्षेत्रज्ञ है।
सर्वज्ञ परमेश्वर को जानना ही ज्ञान है।
पाँच महाभूत, ज्ञानेन्द्रियाँ, दस इन्द्रियाँ, शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध, इच्छा, द्वेष, चेतना, धृति —
ये सभी क्षेत्र और उसके विकार का स्वरूप हैं।
श्रेष्ठता का अभाव, दंभ का अभाव, मन-वाणी की सरलता, सत्यपूर्वक व्यवहार,
आसक्ति और ममता का न होना, प्रिय और अप्रिय की प्राप्ति में समभाव, अव्यभिचारिणी भक्ति,
अध्यात्म ज्ञान में नित्य स्थिति और तत्त्वज्ञान के अर्थरूप परमात्मा को देखना —
यह ज्ञान है, और इसके विपरीत अज्ञान है।
परमात्मा सभी जगह व्याप्त हैं।
वे चराचर सभी भूतों में स्थित होकर सर्वव्यापी हैं।
परमात्मा अपने भक्तों के लिए समीप हैं और अज्ञानी लोगों के लिए दूर हैं।
वह परमात्मा इस देह में स्थित होते हुए भी माया से अतीत हैं और:
उपद्रष्टा, यथार्थ सम्मति देने वाला, अनुमन्ता, भर्ता, भोक्ता, महेश्वर,
शुद्ध सच्चिदानंद होने से परमात्मा कहे जाते हैं।
जिस प्रकार एक ही सूर्य सम्पूर्ण ब्रह्मांड को प्रकाशित करता है,
उसी प्रकार एक ही आत्मा संपूर्ण क्षेत्र — अर्थात सम्पूर्ण जड़ वर्ग — को प्रकाशित करता है।
इस संसार में सभी प्राणी क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के संयोग से ही उत्पन्न होते हैं।
जो सभी भूतों में समभाव से परमेश्वर को देखता है, वही ज्ञानी यथार्थ में देखता है।
क्षेत्र को नश्वर और क्षेत्रज्ञ को नित्य जानना ही क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के भेद को जानना है।