श्रीभगवान कहते हैं कि कैसे मनुष्य भक्तियोग के द्वारा मुझे पूर्णतः जान सकते हैं — उस विशेष ज्ञान (विज्ञान) को मैं बताता हूँ।
हजारों में कोई एक सिद्धि प्राप्त करने के लिए यत्न करता है, और उनमें से भी कोई एक मुझे (भगवान को) जान पाता है।
भूमि, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार — ये आठ प्रकार की मेरी भिन्न प्रकृत शक्तियाँ हैं।
इन परा शक्तियों के अतिरिक्त मेरी अपरा शक्ति भी है, जिसमें देहधारी आत्माएँ सम्मिलित हैं — जो इस संसार का आधार हैं।
सभी प्राणी इन शक्तियों से उत्पन्न होते हैं।
मैं ही इस संसार का मूलभूत कारण हूँ और सब मुझमें ही विलीन हो जाते हैं।
अब भगवान अपने विशेष रूप को बताते हैं और कहते हैं कि
मैं जल में स्वाद हूँ, सूर्य-चंद्रमा का प्रकाश हूँ, ध्वनियों में मैं ओंकार (ॐ) हूँ,
प्राणियों का सामर्थ्य, गंध, तेज, बल और धर्म भी मैं ही हूँ।
तीनों गुण (सत्त्व, रजस और तमस) भी मेरी ही माया से प्रकट होते हैं।
भगवान यह भी बताते हैं कि अज्ञानी, आलसी, भ्रमित और आसुरी — ये चार प्रकार के लोग भगवान की शरण में नहीं आते हैं।
उत्तम कर्म वाले चार प्रकार (आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी और ज्ञानी) के लोग सदा ही ईश्वर की भक्ति में लीन रहते हैं।
जो भक्त ईश्वर की अनन्य भक्ति में लीन रहते हैं, वे भगवान को प्रिय होते हैं।
अनेक जन्मों की साधना से जो ज्ञान भक्तों को प्राप्त होता है — वह ज्ञान अत्यंत दुर्लभ होता है।
लोग अपनी सांसारिक ज़रूरतों के लिए विभिन्न देवताओं की पूजा करते हैं — भगवान स्वयं (श्रीकृष्ण) उस मनुष्य की भक्ति उस देवता के प्रति स्थापित कर देते हैं।
ऐसा करने पर भी सभी मनुष्यों को फल भगवान श्रीकृष्ण की कृपा से ही प्राप्त होता है।
श्रीभगवान भूत, वर्तमान और भविष्य — तीनों के ज्ञाता हैं।
जो मनुष्य अधिभूत, अधिदैव और अधियज्ञ को जानते हैं — वे अंत काल में भी ईश्वर में अपनी चेतना को स्थापित करते हैं।