इसके पूर्व के अध्याय की समाप्ति भक्ति भाव पर होती है।
इसे ही आगे बढ़ाते हुए अर्जुन पूछते हैं कि भक्ति के सगुण रूप (साकार) उपासक और निर्गुण ब्रह्म रूप (निराकार) उपासक में कौन श्रेष्ठ है?
इसका उत्तर देते हुए भगवान कहते हैं कि जो मुझमें एकाग्रचित्त होकर किसी भी मार्ग से मेरी अनन्य भक्ति करते हैं — वे मुझमें ही प्राप्त होते हैं।
किन्तु सगुण रूप के उपासक को मैं श्रेष्ठ योगी के रूप में सम्मान देता हूँ।
ऐसे भक्त अपने समस्त कर्मों को भगवान में अर्पित कर, अनन्य भक्ति में लीन रहते हैं — और भगवान उन्हें शीघ्र ही अपनी शरण में ले लेते हैं।
निराकार उपासकों की भक्ति कष्टप्रद होती है — उनकी साधना में विशेष परिश्रम होता है।
भगवान अर्जुन से कहते हैं:
“तू अपने मन और बुद्धि को मुझमें लगा।
यदि ऐसा नहीं कर पा रहा है, तो अभ्यास द्वारा मेरी प्राप्ति के लिए यत्न कर।
यदि यह भी संभव नहीं है, तो सभी कर्मों के फल का त्याग कर।
अभ्यास से ज्ञान श्रेष्ठ है, ज्ञान से ध्यान श्रेष्ठ है, ध्यान से कर्मों के फल का त्याग श्रेष्ठ है,
क्योंकि त्याग से तत्काल ही शांति प्राप्त होती है।”
जिनमें द्वेष, अहंकार, ममता और स्वार्थ का अभाव होता है,
जो समभाव में रहते हैं, संतुष्ट, दृढ़निश्चयी और जितेन्द्रिय हैं —
वह मद्गतप्राण भक्त मुझे प्रिय है।
जिसमें हर्ष और अमर्ष का अभाव है, जो भय और उद्वेग से रहित है,
पक्षपात और द्वेष से मुक्त है — ऐसा भक्तियुक्त पुरुष मुझे प्रिय है।
जो शत्रु-मित्र, शीत-उष्ण, सुख-दुःख, निंदा-स्तुति, मान और अपमान — इन सभी में समभाव रखता है — वह भक्त मुझे प्रिय है।