इस अध्याय में भगवान ने अपनी दिव्य विभूतियों के बारे में बताया है।
भगवान अर्जुन से कहते हैं कि मेरी उत्पत्ति को न देवता जानते हैं, न ही महर्षि,
क्योंकि मैं ही सभी का आदि कारण / उद्गम स्रोत हूँ।
जो मेरे इस स्वरूप को जान जाते हैं, वे ज्ञानी पुरुष समस्त पापों से मुक्त हो जाते हैं।
मनुष्यों के समस्त भाव — बुद्धि, ज्ञान, मोह, सत्यता, सुख, दुःख, क्षमा आदि — सभी मुझसे ही उत्पन्न होते हैं।
सप्तर्षि, सनकादि, चौदह मनु एवं समस्त जीव — इन सभी का आदि कारण मैं ही हूँ।
मेरे इस भाव को जानकर जो मेरी भक्ति करते हैं — मैं उनके हृदय में वास करता हूँ।
निरंतर मुझमें मन लगाने वाले और अपने प्राणों को मुझमें अर्पण करने वाले (मद्गतप्राण) भक्त सदा ही मेरा चिंतन और कथन करते रहते हैं।
ऐसे प्रेमपूर्वक भजने वाले भक्तों को मैं वह तत्त्वज्ञानरूप योग देता हूँ, जिससे वे मुझको ही प्राप्त होते हैं।
अर्जुन कहते हैं:
“मैं अब जान गया हूँ कि आप परमब्रह्म, परमधाम और परम पवित्र हैं।
आपको सब ऋषिगण, सनातन दिव्य पुरुष और देवता भी आदिपुरुष, अजन्मा और सर्वव्यापी कहते हैं।
ऐसे ही देवर्षि नारद, असित, देवल और महामुनि वेदव्यास भी कहते हैं।
हे जगत्पति! आप ही अपनी विभूतियों को विस्तार से मुझे बता सकते हैं — कृपा कर इन्हें अपने अमृतमय वचनों में कहें।”
भगवान अपनी अनंत विभूतियों में से प्रधान विभूतियों के बारे में बताते हैं।
भगवान कहते हैं कि मेरा कोई आदि, अंत और मध्य नहीं है — और मैं सभी जीवों में स्थित हूँ।
मैं ही विष्णु हूँ, प्रकाशमान पदार्थों में सूर्य हूँ, नक्षत्रों में चंद्र हूँ।
वेदों में सामवेद, देवों में इंद्र, इन्द्रियों में मन, प्राणियों में चेतना, रुद्रों में शंकर,
पुरोहितों में बृहस्पति, सेनानियों में स्कन्द, जलाशयों में समुद्र — ये सब मैं हूँ।
महर्षियों में भृगु, शब्दों में ॐ, अंचलों में हिमालय, वृक्षों में पीपल,
देवर्षियों में नारद, सिद्धों में कपिल मुनि मैं ही हूँ।
शस्त्रों में वज्र, गौओं में कामधेनु, दैत्यों में प्रह्लाद, पशुओं में सिंह, पक्षियों में गरुड़,
शस्त्रधारियों में राम, नदियों में भागीरथी मैं ही हूँ।
मैं सबका नाश करने वाला मृत्यु और सबकी उत्पत्ति का कारण भी हूँ।
मैं तेजस्वियों का तेज, जीतने वालों की विजय, छल करने वालों में जुआ, और प्रभावशाली पुरुषों का प्रभाव हूँ।
वृष्णि वंशियों में मैं स्वयं वासुदेव, पांडवों में तू (अर्जुन), मुनियों में वेदव्यास, और कवियों में शुक्राचार्य मैं ही हूँ।
अपनी विभूतियों के वर्णन का समापन करते हुए भगवान कहते हैं:
“इस जगत में कोई ऐसा चराचर जीव नहीं है जो मुझसे रहित हो।
इस संसार में जो भी तू तेजोमय वस्तु या प्राणी देखता है — वह मेरे तेज के अंश की ही अभिव्यक्ति है।
इतना ही नहीं, तू बस यह समझ कि इस संपूर्ण जगत को मैं अपनी योगशक्ति के अंशमात्र से धारण करके स्थित हूँ।”