पूर्व के अध्याय में भगवान के द्वारा बताए गए कर्मयोग और कर्मसंन्यास की चर्चा करते हुए, इनमें से अधिक प्रभावी विकल्प की जिज्ञासा की जाती है।
इसका उत्तर देते हुए भगवान कर्मयोग को कर्मसंन्यासयोग की अपेक्षा अधिक श्रेयस्कर मानते हैं।
साथ ही, भगवान इस पर ज्ञानी लोगों का मत भी बताते हुए कहते हैं कि कर्मयोग और कर्मसंन्यास — दोनों मार्गों का अनुसरण करते हुए फल की प्राप्ति की जा सकती है।
इसलिए ये दोनों मार्ग समान हैं।
कर्मयोगी अपने मन और इन्द्रियों को अपने वश में रखते हुए अपने समस्त सांसारिक कर्म करते हैं।
ऐसे योगी सारी क्रियाएँ करते हुए भी स्वयं में कर्तापन का अभिमान नहीं रखते।
वे अपने कर्मफल को भगवान में समर्पित कर, आसक्तिरहित कर्म करते हैं।
इस प्रकार उन्हें चिरकालिक शांति की प्राप्ति होती है।
इसके ठीक विपरीत, कर्मफल में आसक्ति रखकर कर्म करने वाले लोग स्वार्थी होकर कर्मबन्धन में पड़ जाते हैं और सांसारिक मायाजाल में फँस जाते हैं।
ऐसे देहधारी जीव जो आत्मनियंत्रित और अनासक्त कर्म का आचरण करते हैं — वे इस नवद्वारों वाले शरीर में सुखपूर्वक रहते हैं।
इनकी बुद्धि भगवान में स्थिर हो जाती है और उन्हें ज्ञान प्राप्त हो जाता है।
ऐसे लोग समदर्शी होते हैं — अर्थात वे सभी जीवों को एक समान देखते हैं।
ये ज्ञानी लोग सांसारिक जीवनचक्र से मुक्त होकर ईश्वर के परमधाम को प्राप्त कर लेते हैं।
इनके लिए समस्त भोगों का एकमात्र स्वामी और समस्त प्राणियों का हितैषी केवल ईश्वर ही होता है।