अध्याय के आरंभ में राजा धृतराष्ट्र संजय से कहता है: धर्मक्षेत्र पुण्यभूमि कुरुक्षेत्र में युद्ध के लिए आमने-सामने डटे मेरे (कौरव) और पांडु के पुत्रों (पांडव) के बीच क्या हुआ, मुझे सुनाओ।
तब संजय बोला — सर्वप्रथम दुर्योधन अपने गुरु द्रोणाचार्य के पास गया। उसने दोनों सेनाओं के शूरवीरों का वर्णन किया और कहा कि उसकी सेना अजेय है।
इसके बाद दोनों सेनाओं ने रणवाद्यों का घोष किया। इससे सारा आकाश गूंज उठा। कुछ समय बाद दोनों सेनाएँ स्थिर हो गईं।
तब अर्जुन ने अपने सारथी भगवान श्रीकृष्ण से कहा: “मेरा रथ दोनों सेनाओं के बीचों-बीच खड़ा कीजिए जिससे मैं देख सकूं कि मुझे किन-किन के साथ युद्ध करना है।”
इस पर भगवान श्रीकृष्ण ने रथ को दोनों सेनाओं के बीचों-बीच खड़ा किया। तब अर्जुन ने देखा — गुरु द्रोण, पितामह भीष्म, अपने मित्र व संबंधी युद्ध के लिए सामने खड़े हैं।
उन सभी आप्तजनों को देखकर अर्जुन अत्यंत शोकाकुल हो उठा और भगवान श्रीकृष्ण से बोला:
“युद्ध के लिए खड़े इन आप्तजनों को देखकर मेरा शरीर कांप रहा है, मेरे रोंगटे खड़े हो गए हैं, मेरा धनुष मेरे हाथ से छूटता जा रहा है, मेरा चित्त स्थिर नहीं है।
अपने ही बंधुजनों को युद्ध में मारना मुझे बिल्कुल कल्याणकारी नहीं लगता। मुझे विजय और राज्य कुछ भी नहीं चाहिए — इससे अच्छा तो मेरे लिए मरण ही रहेगा।
इस युद्ध से कुल क्षय होगा। कुल क्षय से कुलाचार नष्ट हो जाएंगे, कुल की स्त्रियाँ भ्रष्ट हो जाएँगी और वर्णसंकर होगा — यानी कुल की शुद्धता ही नष्ट हो जाएगी।
फिर पितरों के साथ हम सभी को नरकगति प्राप्त होगी।”
इतना कहकर शोकाकुल अर्जुन ने धनुष-बाण फेंक दिया और “मैं युद्ध नहीं करूँगा” ऐसा कहकर वह रथ के पीछे जा बैठा।