इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से ज्ञान की उत्पत्ति और कर्म सन्यास के बारे में बतलाते हैं। भगवान ज्ञान के उद्गम और योग की परंपरा के बारे कहते हैं की सर्वप्रथम यह ज्ञान उन्होंने सूर्य से कहा था, सूर्य ने अपने पुत्र मनु से और मनु ने इक्षवाकु से कहा। इस प्रकार परंपरा से प्राप्त यह ज्ञान राजर्षियों से जाना और उसके पश्चात् यह ज्ञान लुप्त हो गया। ऐसा सुनकर अर्जुन आश्चर्य से कहते हैं कि हे भगवान् ! आपका जन्मा तो अभी हाल का है तो आपने यह गया सूर्य से कैसे कहा। इस प्रश्न का उत्तर देते हुए भगवान कहते हैं कि मेरे और तुम्हारे बहुत से जन्म हो चुके हैं जिन्हे मैं जानता हूँ लेकिन तुम्हे इसका ज्ञान नहीं है। इस संसार में जब धर्म का नाश होता है, अधर्म कि वृद्धि होती है, सजन्नो का उद्धार करने के लिए और तब धर्म कि पुनः स्थापना के लिए मैं बार बार जन्म लेता हूँ।
अब भगवान जन्म मृत्यु के चक्र के बारे में बतलाते हुए कहते हैं कि जो मुझे वास्तविक रूप में जान लेता है वह इस जीवन मरण के चक्र से मुक्त हो मेरे श्री चरणों में स्थान प्राप्त करता है। भक्त जिस रूप में मुझे (भगवान ) को भजते हैं, मैं भी उन्हें उसी प्रकार भजता हूँ। सभी लोग इस संसार में भगवान द्वारा बताये हुए मार्ग का ही अनुसरण करते हैं। सभी वर्ण, गुण और कर्म भगवान के द्वारा ही रचे गए हैं, इस सम्पूर्ण विश्व के रचयिता होने के बाद भी भगवान स्वयं को अकर्ता मानते हैं क्योंकि वे कर्म और कर्मफल के बंधन से मुक्त हैं।
इस प्रकार कर्म और कर्म फल कि परिचर्चा करते हैं भगवान कहते हैं कि मनुष्य को सभी प्रकार के कर्म के बारे में जानना चाहिए। मनुष्य को कर्म बिना किसी फल की आकांक्षा के करते रहना चाहिए। जिन मनुष्य के सभी कर्म बिना किसी कामना और संकल्प के सिद्ध होते हैं वो मनुष्य ज्ञान योग और कर्म योग के मर्म को समझते हैं। ऐसे मनुष्य ही वास्तविक अर्थ में ज्ञानी हैं। ऐसे मनुष्य जो बिना इच्छा के प्राप्त हुए फल से संतुष्ट रहते हैं , जो ईर्ष्यारहित हैं, जिनमे हर्ष-शोकादि द्वंद्वों का आभाव है, ऐसे कर्मयोगी मनुष्य कर्म करते हुए भी कर्म बंधन से लिप्त नहीं होते हैं।
भगवान ऋषि मुनियों के बारे में भी बताते हुए कहते हैं कि वे केवल भगवद सुख की प्राप्ति के हेतु ही समस्त कर्म के रूप में यज्ञ करते हैं। यज्ञ विभिन्न प्रकार के होते हैं और उनकी क्रियाओं में विभिन्न प्रकार की आहुतियां भी दी जाती हैं। भगवान द्रव्यमय यज्ञ की अपेक्षा ज्ञानयज्ञ को श्रेष्ठ मानते है। भगवान अर्जुन से उस ज्ञान को प्राप्त करने हेतु योगियों के शरण में जाने कहते हैं और उनकी सेवा करने को कहते हैं। भगवान कहते हैं कि उस परम ज्ञान को प्राप्त कर तुम (अर्जुन )समस्त जीवों को और मुझे अच्छी तरह से देख पाओगे अर्थात सभी प्राणियों में भगवान को और भगवान में सभी प्राणियों को देख पाओगे। ऐसा ज्ञान समस्त कर्मो को भस्म कर देता है, और इस ज्ञान के समान कुछ भी पवित्र नहीं है। श्रद्धावान मनुष्य अपनी इन्द्रियों के आकांक्षाओं को नियंत्रित कर ज्ञान प्राप्त करते हैं और इसके पश्चात शांति को प्राप्त करते हैं। अतः भगवान अर्जुन को अपने ह्रदय की अज्ञानता को त्याग कर कर्मयोग में लग जाने के लिए प्रेरित करते हैं।