इस अध्याय में भगवान ने दैवी और आसुरी प्रकृति का फलसहित वर्णन किया है। इस संसार में मनुष्य की प्रकृति दैवी और आसुरी दो प्रकार की होती है। अभय, सात्विक आचरण , यथार्थ भाषण , अहिंसा, तेज , धैर्य , ज्ञान योग व्यवस्थिति , दान , यज्ञ , पूजन , आसक्ति का आभाव , शत्रुभाव का न होना ये सब दैवी सम्पदा को लेकर उत्पन्न हुए पुरुष के लक्षण हैं। दम्भ , घमंड, अभिमान, क्रोध , कठोरता , और अज्ञान ये आसुरी लक्षण हैं। दैवी सम्पदा मुक्ति और आसुरी सम्पदा बंधन प्रदान करती है।
आसुर स्वाभाव वाले लोग परमेश्वर को न मानकर काम को ही मनुष्य की उत्पत्ति का कारण मानते हैं। वे लोग काम और क्रोध के परायण होकर बस सांसारिक कामनाओं की पूर्ती में लगे रहते हैं। वे मृत्यु पर्यन्त क्षणिक सुख की प्राप्ति के लिए यत्न करते रहते हैं। ऐसे पुरुष अपनी मान प्रतिष्ठा के लिए संलग्न कर्मों में लीन होते हैं। इनका यज्ञ, दान और तप भी अनैतिक और शास्त्र के विरुद्ध होता है। ऐसे पुरुष अपने और दूसरों के शरीर में स्थित परमात्मा से भी द्वेष करते हैं। ऐसे जीव बारम्बार नीच योनियों में जन्म लेते हैं और घोर नरकों में पड़ते हैं।
काम ,क्रोध और लोभ ये तीन नरक के द्वार हैं और आत्मा का नाश कर अधोगति में ले जाते हैं। अतः इसे त्याग देना चाहिए। इन तीनों से मुक्ति के लिए जो आचरण करता है वह परमगति को प्राप्त हो जाता है। शाश्त्र विधि को त्यागकर स्वेच्छापूर्वक आचरण करने वाले न सिद्धि को प्राप्त करते हैं , न परमगति को और न शांति को। इसीलिए भगवान शास्त्र को प्रमाण रखते हुए कर्त्तव्य करने की ओर प्रेरित करते हैं।