अध्याय २ में भगवान ने अर्जुन को धर्मपालन का स्मरण करवाया और कर्मयोग के साथ बुद्धियोग के बारे में भी बतलाया। साथ ही बुद्धि को स्थिर रखकर कर्मफल में अनासक्त रहने की भी ज्ञान दिया। इस से भ्रमित होकर अर्जुन पूछते हैं कि यदि ज्ञान कर्म से श्रेष्ठ है तो मुझे आप कर्म करने के लिए क्यों प्रेरित कर रहे हैं। आप एक नियत और श्रेष्ठ मार्ग बतलाइये जिससे मेरा कल्याण हो।
भगवान कहते हैं कि मेरे द्वारा दो प्रकार कि निष्ठा पहले कही जा चुकी है - ज्ञान योग (यह चिंतन करने वाले लोगों का होता है जो कि कर्मों में कर्तापन का त्याग करते हैं। इसे ही संख्यायोग या सन्यासयोग भी कहा जाता है। ) और कर्मयोग (जिनकी रूचि कर्म में है। ऐसे योगी फल और आसक्ति को त्याग कर भगवदज्ञानुसार कर्म करते है। इसे ही समत्वयोग , बुद्धियोग , तदर्थकर्म , मदर्थकर्म, मतकर्म आदि नामों से कहा गया है।) इस संसार में कोई भी मनुष्य किसी भी काल में बिना कर्म किये हुए नहीं रह सकता है। इसलिए न कोई कर्म से विमुख रहकर कर्मफल से मुक्ति पा सकता है और न शारीरिक सन्यास से। जो मनुष्य मन से अपनी ज्ञानेन्द्रियों को नियंत्रित करते हुए अपने कर्मेन्द्रियों से अपने कर्मयोग का आचरण करते हैं वो श्रेष्ठ हैं। कर्म न करने कि अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है और कर्म न करने से शरीर निर्वाह भी नहीं होगा। अतः भगवान अर्जुन को शास्त्रविहित और अनासक्त होकर कर्म करने की प्रेरणा देते हैं।
भगवान कहते हैं की सृष्टि के आदि में प्रजाओं को रचकर परमपिता ब्रह्मा ने कहा कि तुम यज्ञ द्वारा देवताओ को उन्नत करो और देवता तुम्हे उन्नत करेंगे। इसप्रकार परस्पर निःस्वार्थ भाव से एक दुसरे को उन्नत करते हुए तुम कल्याण को प्राप्त हो जाओगे। इसी सन्दर्भ में जीवन चक्र को समझाते हुए भगवान कहते हैं कि सम्पूर्ण प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं , अन्न वृष्टि से , वृष्टि यज्ञ से , यज्ञ विहित कर्मो से उत्पन्न होता है। जो मनुष्य वेदों द्वारा स्थापित इस कर्म चक्र का पालन नहीं करते हैं वो पाप को अर्जित करते हैं। राजा जनक भी आसक्तिरहित कर्म द्वारा परम सिद्धि को प्राप्त हुए। इस लोकहित में भी तू (अर्जुन ) कर्म करने के योग्य ही है। श्रेष्ठ पुरुष जैसा आचरण करते हैं , सामान्य जन भी उनका अनुसरण करते हुए उसी मार्ग पर चलते हैं। इस लोक में या अन्य किसी लोक में मेरे (भगवान ) लिए कुछ अप्राप्य नहीं है फिर भी मैं कर्म करता हूँ। मैं ऐसा न करूँ तो समस्त प्रजा मेरे मार्ग का अनुसरण करते हुए पथभ्रष्ट होकर नष्ट हो जाएगी।
अर्जुन पूछते हैं कि मनुष्य सब जानते हुए भी पाप क्यों करता है ? इसका उत्तर देते हुए भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि रजोगुण से उत्पन्न हुआ यह काम और क्रोध ही मनुष्य को ऐसा करने पर विवश करता है। यह मनुष्य को बुध्दि को ढँक कर रखता है। इन्द्रियाँ मन और बुद्धि इसके वासस्थान हैं और यह मनुष्य को मोहित कर लेता है। मनुष्य को अपनी इन्द्रियों को नियंत्रित करके इस काम का अंत कर देना चाहिए। इन्द्रियाँ शरीर से श्रेष्ठ हैं , इन्द्रियों से मन, मन से श्रेष्ठ बुद्धि और बुद्धि से श्रेष्ठ आत्मा है। इसलिए मनुष्य को आत्मा को श्रेष्ठ समझते हुए इन्द्रिय मन और बुद्धि पर नियंत्रण रखते हुए आत्मज्ञान से इस कामरूपी शत्रु का नाश कर देना चाहिए।