भगवान की दिव्य विभूतियों कि बारे में सुनकर अर्जुन कहते हैं कि मेरा अज्ञान नष्ट हो गया है। आप अपने बारे में जैसा कहते हैं मैं आपके उस स्वरुप को देखने की इच्छा करता हूँ। यदि आप मुझे इस योग्य समझते हैं तो मुझे अपने विश्वरूप का दर्शन दें।
भगवान कहते हैं कि तुम मेरे दिव्य रुप का दर्शन कर सकते हो लेकिन अपने प्राकृत नेत्रों से नहीं बल्कि दिव्य दृष्टि से जो कि मैं तुम्हे प्रदान करता हूँ। अर्जुन ने प्रणाम करते हुए कहा कि इसके पश्चात् भगवान अपने विश्वरूप को धारण करते हैं। अनेक मुख और नेत्रों से युक्त, दिव्य आभूषण और शस्त्र से युक्त, दिव्य गंध का लेप किये हुए, अनंत और सब ओर मुख किये हुए आपके रूप को देखता हूँ। आपका यह रूप हजारों सूर्य कि प्रकाश से भी ज्यादा दीप्यमान है।
अर्जुन स्तुति करते हुए कहते हैं कि मैं आपके इस रूप में संपूर्ण देव , भूत गण, ऋषियों, ब्रह्मा और महादेव को देखता हूँ। मैं न आपके आदि और अंत को ही देख पा रहा हूँ। आप मुकुट युक्त , गदा और चक्र युक्त अग्नि और सूर्य कि सदृश ज्योतिमय और अप्रमेय स्वरुप देखता हूँ। पृथ्वी और स्वर्ग कि बीच का संपूर्ण आकाश और दिशाएं आपसे ही परिपूर्ण हैं। सभी देवता, महर्षि आपकी स्तुति कर रहे हैं औरआपके दाढ़ों कि कारण आपका रूप विकराल भी लग रहा है। इस युद्ध कि सभी योद्धा आपके शरीर में क्षत विक्षत होकर प्रवेश कर रहे हैं और आप अपने मुख में सभी का ग्रास कर रहे हैं। आपका यह उग्र रूप कैसा है ?
श्रीकृष्ण ने कहा मैं लोगों कि क्षय हेतु काल हूँ। ये सभी योद्धा तुम्हारे बिना भी मारे जायेंगे। इनका नाश तो निश्चित है तू बस निमित्त मात्र बन जा।
अर्जुन भगवान की विभिन्न विशेषणों से भगवान की स्तुति और नमस्कार करते हुए अपने सौम्य चतुर्भुज रूप दिखाने की कृपा करने को कहते हैं।
श्री भगवान अपना सौम्य रूप दिखते हुए कहते हैं मेरा यह रूप सुदुर्दर्श है जो कि अनन्य प्रेम और अतिशय भक्ति से ही देखा जा सकता है। ऐसे मनुष्य जो मेरे परायण होकर, सभी भूतों में निर्वैर भाव से रहते हैं वे मुझे ही प्राप्त होते है।