तीन गुणों की परिचय के पश्चात भगवान ने इस अध्याय में गुणों की व्याख्या विभिन्न कर्मों(श्रद्धा, यज्ञ, तप और दान ) के परिपेक्ष्य में की है। अर्जुन पूछते हैं कि वे मनुष्य जो शास्त्र विधि को त्याग कर श्रद्धा से पूजन करते हैं उनकी क्या स्थिति है। इसका उत्तर देते हुए भगवान कहते हैं कि ऐसी श्रद्धा स्वभावज होती है और ये भी सात्विक, राजसी और तामसी तीन प्रकार की होती है। सात्विक पुरुष देवों को , राजसी पुरुष यक्ष तथा राक्षसों की और तामसी पुरुष भूत-प्रेतादि का पूजन करते हैं। कुछ लोग शास्त्र के विपरीत, अहंकार से प्रेरित होकर घोर तप करते हुए अपने शरीर को कष्ट पहुंचाते हुए अपने शरीर में स्थित परमात्मा को भी कष्ट पहुंचाते हैं , ऐसे अज्ञानी आसुरी प्रवृति के होते हैं।
भोजन भी मनुष्य को अपनी प्रकृति के अनुसार प्रिय होता है। सात्विक पुरुष रसयुक्त , चिकने और स्थिर रहने वाले आहार ग्रहण करते हैं जो आयु , बुद्धि , बल, आरोग्य , सुख और प्रीति को बढ़ाने वाले होते हैं। वहीँ राजस व्यक्ति कड़वे , खट्टे , लवण युक्त और बहुत गरम भोजन करते हैं जिनसे दुःख, चिंता और रोग उत्पन्न होते हैं। वहीँ तामसी प्रवृति वाले लोग अधपका, रसरहित, बासी और दुर्गन्ध युक्त भोजन करते हैं।
शास्त्र विधि से नियत कर्त्तव्य जानकर देश, काल और पात्र को ध्यान में रखकर किया गया यज्ञ, तप और दान सात्विक है। वहीँ दंभाचरण और फल को हेतु में रखकर किया गया यज्ञ, तप और दान राजसी है। शास्त्रहीन, मंत्रहीन , श्रद्धाहीन और कुपात्र के प्रति किया हुआ यज्ञ , तप और दान तामसिक है।
गुरु, देवता , ब्राह्मण का पूजन, पवित्रता , ब्रह्मचर्य और अहिंसा ये शरीर सम्बन्धी तप कहे गए हैं। मन की प्रसन्नता, भगवद चिंतन , अन्तः करण की पवित्रता ये मानसिक तप कहे गए हैं। अनुद्वेगकारी, सुखकारी, यथार्थ भाषण, वेद तथा परमेश्वर के नाम और गुणों का जाप करना ये वाणी सम्बन्धी तप हैं।
ॐ , तत और सत ये तीन परमात्मा के नाम कहे जाते हैं और इसी से वेद यज्ञादि रचे गए। यज्ञ , तप, दान और ध्यान ॐ का उच्चारण करते हुए ब्रह्मवादियों द्वारा किया जाता है। तत परमेश्वर को फल समर्पित करते हुए यज्ञ, तप और दान की क्रिया में मोक्षकांक्षियों द्वारा किया जाता है। सत्यभाव और साधुभाव को प्रदर्शित करने हेतु किया गया कार्य सत को उच्चारित करते हुए किया जाना चाहिए। अश्रद्धा के किया हुआ यज्ञ , तप और दान इस लोक और परलोक दोनों में व्यर्थ है।