इस अंतिम अध्याय में भगवान ने कई विषयों पर अपना मंतव्य दिया है जो कि ज्ञान कि पूर्णता को परिलक्षित करता है। यह श्रीमद्भगवद्गीता का सबसे बड़ा अध्याय है। अर्जुन सन्यास और त्याग के बारे में पूछते हुए चर्चा करते है। श्री भगवान कहते हैं कि काम्य और निषिद्ध कर्मों का त्याग करते हुए नियत कर्म करना चाहिए और नियत कर्म के फल का त्याग (सात्विक त्याग ) करना चाहिए। शारीरिक क्लेश के भय से कर्त्तव्य कर्मों का त्याग राजस है और मोह के द्वारा किया गया त्याग तामस है। जो मनुष्य अकुशल कर्म से द्वेष नहीं करता और कुशल कर्म में लिप्त नहीं होता वो सच्चा त्यागी है।
अब भगवान सांख्य शास्त्र का उल्लेख करते हुए सम्पूर्ण कर्मों कि सिद्धि के पाँच कारक( अधिष्ठान, कर्ता, करण , चेष्टा और दैव) की चर्चा करते हैं। मनुष्य के सभी कर्म इन सभी कारकों से होते हैं। बुद्धिमान मनुष्य इन कारकों को समझते हुए केवल आत्मा को ही कर्ता समझते हैं। ऐसे पुरुष कर्तापन के अभिमान से रहित होकर , इस संसार में किसी भी प्रकार की हिंसा से लिप्त नहीं होते हैं।
ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय ये तीन प्रकार की कर्म प्रेरणा है और कर्त्ता, करण और क्रिया ये तीन प्रकार का कर्म संग्रह है। संख्या शास्त्र में ज्ञान , कर्म और कर्त्ता गुणों के भेद तीन तीन प्रकार के कहे गए हैं। सात्विक ज्ञान से प्रेरित मनुष्य सभी भूतों में एक समान से परमात्मा को स्थित देखता है। राजस ज्ञान से मनुष्य भिन्न भिन्न जीवों को पृथक देखता है। वहीँ तामसी ज्ञान एक कार्य रूप शरीर में ही सम्पूर्ण के सदृश आसक्त रहते हैं। शास्त्र सम्मत, कर्तापन के अभिमान से रहित और राग-द्वेष से रहित किया गया कर्म सात्विक है। फल की ईच्छा और अहंकार से किया गया कर्म राजसी है वही परिणाम , हानि , हिंसा और अज्ञान से जनित कर्म तामसिक है। सात्विक कर्त्ता अहंकार रहित , धैर्य उत्साह से युक्त और कर्म फल से रहित होता है। राजसी कर्त्ता फल को चाहने वाले अशुद्धाचारी और हर्ष शोक से लिप्त होते हैं। तामसी कर्त्ता शिक्षारहित , धूर्त , आलसी और दीर्घसूत्री होते हैं।
जो बुद्धि प्रवृति मार्ग और निवृति मार्ग , कर्त्तव्य और अकर्तव्य , भय और अभय तथा बंधन और मोक्ष को यथार्थ जानती है वो सात्विकी है। जो इस प्रकार के भेद को नहीं जानती है , वो बुद्धि राजसी है। तामसी बुद्धि अधर्म को भी धर्म मान लेती है। जिस धारणशक्ति से मनुष्य अव्यभिचारिणी भक्ति हेतु क्रिया करने को तत्पर रहता है , वह सात्विकी धृति है। फलाकांक्षी होकर धर्म, अर्थ और काम को धारण करने वाली धृति राजसी है और तामसी धृति से मनुष्य दुष्टता, निद्रा , भय और उन्मत्ता को धारण कर्त्ता है। परमात्मा के ध्यान से प्राप्त सुख सात्विक है , विषय और इन्द्रियों का सुख राजस है और आलास और प्रमाद से प्राप्त सुख तामसिक है। इस समस्त विश्व में कोई भी ऐसा प्राणी नहीं है जो इन तीनो गुणों से परे हो।
सभी वर्णों के स्वभावज कर्म विभक्त किये गए हैं। अंतःकरण का निग्रह, इन्द्रियों का दमन, वेद-शास्त्रों का पठन-पाठन, परमात्मा का ध्यान ब्राह्मण के स्वाभाविक कर्म हैं। वीरता, धैर्य, युद्ध में न भागना, दान और स्वामी भाव ये क्षत्रिय के स्वाभाविक कर्म हैं। खेती, गोपालन, क्रय-विक्रय का सत्यव्यवहार वैश्य के और सभी वर्णों की सेवा करना शूद्रों की स्वाभाविक कर्म हैं। अपने-अपने स्वाभाविक कर्म को निष्ठा से कर्त्ता हुआ मनुष्य परमसिद्धि को प्राप्त हो जाता है। अच्छी प्रकार आचरण किये हुए दूसरों की धर्म से अपना धर्म ही श्रेष्ठ होता है क्योंकि स्वाभाव नियत स्वकर्म कर्त्ता हुआ मनुष्य पाप को नहीं प्राप्त होता है।
सच्चिदानंदघन ब्रह्म में स्थित प्रसन्न चित्त योगी पराभक्ति को प्राप्त हो जाता है। उस पराभक्ति से वह परमात्मा का सच्चा स्वरुप जानकर भगवान में तत्काल प्रविष्ट हो जाता है। इस प्रकार से भगवान अर्जुन को ईश्वर में स्वयं को समर्पित करके भक्ति और कर्म करने को कहते हैं , साथ ही उसे युद्ध में भाग लेने को प्रेरित करते हैं।
अंत में यह समझना चाहिए कि भगवद्गीता दो मित्रों कि बीच की वार्ता नहीं है बल्कि यह नीति का परम आदेश है। साथ ही 'मन्मना मद्भक्तो' और 'सर्वधर्मान परित्यज्य मामेकं शरणम् वज्र ' का आदेश नीति की परमविधि है। इन्ही आदेशों कि पश्चात् अर्जुन ने श्रीकृष्ण को आश्वस्त किया कि मेरा मोह नष्ट हो गया है और आपके अनुग्रह से मैं संशयरहित और दृढ हूँ तथा आपके आदेशानुसार कर्म करने कि लिए उद्यत हूँ।
पुनश्च यह समझना चाहिए कि ज्ञान तथा ध्यान द्वारा अपनी अनुभूति एक विधि है लेकिन भगवान श्रीकृष्ण की शरणागति सर्वोच्च सिद्धि है। श्रीमद्भगवद्गीता का शुभारम्भ धृतराष्ट्र की जिज्ञासा से हुआ और अंत संजय की स्पष्टोक्ति से जब उन्होने कहा की जहाँ योगेश्वर कृष्ण हैं , परम धनुर्धर अर्जुन हैं, वहीँ ऐश्वर्य, विजय, अलौकिकता तथा नीति भी निश्चित रूप से रहती है। पांडव पक्ष की इस युद्ध में विजय होगी।