इसके पूर्व के अध्याय में भगवान तीन गुण और गुणातीत पुरुष के बारे में बतलाते हैं। भगवान की शरण में आने के लिए उनकी प्रकृति को समझना होगा। इसके लिए भगवान इस संसार की तुलना अश्वथ (बरगद) के वृक्ष से करते हैं जिसकी जड़े ऊपर की ओर हैं और शाखाएं नीचे की ओर हैं। इस वृक्ष की पत्ते वेद के छंद हैं। इस वृक्ष की शाखाएं चारों ओर फैली हुई हैं। ये शाखाएं मनुष्य की कामनाओ का प्रतीक हैं जो की इस जीवन में बंधन लाती हैं। मनुष्य को दृढ वैराग्य रुपी शस्त्र द्वारा इस बंधन को काटकर वृक्ष के मूल में स्थित परमेश्वर की खोज करनी चाहिए। उस परमेश्वर की प्राप्ति के पश्चात् मनुष्य वापस इस मायारूप संसार में वापस नहीं आता है। वह उस परमधाम को प्राप्त होता है जिसे न सूर्य प्रकाशित करता है , न चन्द्रमा और न अग्नि ही क्योंकि यह लोक स्वयं प्रकाशित है।
इस संसार के हर जीव में स्थित आत्मा परमात्मा का ही अंश है। वह एक शरीर से दुसरे शरीर संचित संस्कारों के साथ जाता है। जीवात्मा गुणों के अधीन होकर विषयों का सेवन करती है। यह प्रक्रिया ज्ञानी पुरुषों द्वारा ही देखी और समझी जा सकती है।
भगवान कहते हैं की सूर्य , चंद्र और अग्नि का प्रकाश भी उनसे ही उत्पन्न होता है। वही समस्त प्राणियों को धारण करते हैं और चन्द्रमा द्वारा वनस्पतियों को पुष्ट करते हैं। वही वैश्वानर (भोजन पचाने की अग्नि ) के रूप में सब प्राणियों में स्थित होकर चारो प्रकार के अन्न को पचाकर प्राणियों में ऊर्जा का संचार करते हैं। वही समस्त वेदों के ज्ञान हैं और सारे वेद उनसे ही उत्पन्न हुए हैं। इस संसार में क्षर और अक्षर दो प्रकार के जीव हैं और भगवान इन तीनो लोकों में सभी का पालन करते हैं। भगवान क्षर से दिव्य तथा अक्षर से उत्तम हैं। अतः संसार और वैदिक साहित्य में परम पुरुष पुरुषोत्तम के रूप में विख्यात हैं।