करुणा और अश्रुपूर्ण नेत्रों वाले अर्जुन से भगवान कहते हैं कि इस विषम परिस्थिति में तुम्हे यह मोह किस प्रकार हो रहा है। अपने ह्रदय की दुर्बलता को त्याग कर युद्ध करो। इसका उत्तर देते हुए अर्जुन कहते हैं कि मैं किस प्रकार अपने पूजनीय लोगों पर वाण चला सकता हूँ, इनको ना मारकर मैं इस जगत में भिक्षा का अन्न खाकर जीवित रहना पसंद करूंगा। मुझे इस युद्ध का परिणाम भी नहीं पता फिर भी मैं अपने सम्बन्धियों की हत्या क्यों करूँ? मैं आपकी शरणागत में हूँ , आपका शिष्य हूँ कृपया मेरी शंकाओं का निवारण कीजिय।
श्री भगवान हँसते हुए अर्जुन से बोले तुम पंडितों के से वचनों को कहते हो और मूर्खों की भांति शोक करते हो। जिनके प्राण हैं और जिनके नहीं हैं विद्वान लोग उनके लिए शोक नहीं करते हैं। विद्वान पुरुष जीवन के चक्रों से मोहित नहीं होते, वे सुख दुःख को एक समान देखते हैं। यह मानव शरीर नश्वर है और इस शरीर में वास करने वाला आत्मा नित्य और अविनाशी है। आत्मा न मरती है और न इसे कोई मार सकता है। मनुष्य जिस तरह पुराने वस्त्र त्याग कर नए वस्त्र धारण करता है उसी तरह यह आत्मा पुराने शरीर को त्याग कर नए शरीर को धारण करती है। आत्मा को किसी भी प्रकार नष्ट नहीं किया जा सकता, यह तो सनातन है। इस तरह आत्मा के बारे में सोच कर तुझे शोक करना उपयुक्त नहीं है। यदि इस आत्मा को जन्म लेने वाला और मरने वाला समझा जाए तब भी शोक करना उचित नहीं है क्योंकि जिसने जन्म लिया है उसकी मृत्यु निश्चित है। इस शरीर में स्थित आत्मा अवध्य है, इस हेतु भी सभी प्राणियों के लिए शोक करना योग्य नहीं है।
तुझे इस धर्ममय युद्ध से भयभीत नहीं होना चाहिए। तुम एक भाग्यवान क्षत्रिय हो और यह स्वर्ग और कीर्ति प्राप्ति हेतु एक अवसर है। इस युद्ध में भाग न लेकर तुम्हे अपयश और पाप ही प्राप्त होगा। या तो तुम इस युद्ध में वीरगति को प्राप्त होकर स्वर्ग जाओ या युद्ध में विजयी होकर इस पृथ्वी लोक का सुख भोगो। तुम जय पराजय , लाभ हानि और सुख दुःख को समान समझ कर युद्ध करो।
इसके पश्चात भगवान अर्जुन से युद्ध को कर्म की तरह समझा कर युद्ध करने को प्रेरित करते हैं। भगवान कहते हैं की तुम (अर्जुन) केवल कर्म करने में अधिकार रखो कर्म के फल में नही। तुम आसक्ति को त्यागकर सिद्धि असिद्धि में सम होकर योग में स्थित होकर कर्म करो। समबुद्धियुक्त पुरुष इस जीवन में ही पाप और पुण्य के चक्र से मुक्त हो जाता है। इस से तू समत्व योग में लग जा क्योंकि यह योग ही कर्मो के कुशलता है (योगः कर्मसु कौशलम)। जब तुम्हारी बुद्धि मोह रुपी दलदल से पार कर जाएगी तब उस समय तू इस लोक और परलोक के सभी बंधनो से मुक्त हो जायेगा। तेरी अस्थिर बुद्धि जब परमात्मा में अचल और स्थिर हो जाएगी तब तू योग को प्राप्त हो जायेगा।
अब अर्जुन भगवान से स्थितप्रज्ञ पुरुष के बारे में पूछते हैं। भगवान स्थितप्रज्ञ पुरुष की व्याख्या करते हुए कहते हैं कि जिस पुरुष में कामनाओं का सर्वथा आभाव हो, संतुष्ट हो , दुःख में उद्विग्न न हो, सुख में निस्पृह है , जिसके राग द्वेष नष्ट हो गए हैं ऐसा मुनि स्थितप्रज्ञ है। जैसे एक कछुए अपने अंगों को बाहर की वातावरण से पृथक कर के अपने कवच में समेट लेता है उसी तरह स्तिथ्प्रग्य पुरुष सभी इन्द्रियाँ अपने अपने कार्य में लगी हुई हैं इस तरह अपने आप को अकर्ता समझता है।
सांसारिक कार्य में लीन इन्द्रियां मनुष्य को बलात हर लेती हैं। विषयों अर्थात कर्मफल का चिंतन करने से आसक्ति उत्पन्न होती है, आसक्ति से कामना उतपन्न होती है। कामना में विघ्न होने से क्रोध उत्पन्न होता है और क्रोध से मूढ़ भाव उत्पन्न होता है और इससे स्मृति में भ्रम होता है। स्मृति में भ्रम होने से बुद्धि का नाश होता है और पुरुष अपनी स्थिति से गिर जाता है। इसके विपरीत राग द्वेष से रहित अर्थात स्थितप्रज्ञ पुरुष में अंतःकरण की प्रसन्नता होती है। इस प्रसन्नचित्त योगी की बुद्धि शीघ्र ही परमात्मा में स्थित हो जाती है। जिनका मन और इन्द्रियों पर नियंत्रण नहीं रहता उनकी बुद्धि स्थिर नहीं होती और उन्हें शांति की प्राप्ति नहीं होती है। भावनारहित मनुष्य को शांति नहीं मिलती और वह सुखी भी नहीं होता है।
जिस मोह, कामना या सुख को सांसारिक पुरुष सत्य मानते हैं अर्थात प्राप्त करना चाहते हैं वह स्थितप्रज्ञ पुरुष के लिए रात्रि के सामान है अर्थात ऐसा सुख किसी काम का नहीं है। जैसे नदियों का पानी समुद्र को बिना विचलित किये हुए उसमे समा जाते हैं वैसे ही ये सभी सांसारिक सुख स्थितप्रज्ञ पुरुष को बिना विचलित किये हुए उसमे समा जाते हैं। जो अपनी संपूर्ण कामनाओ का त्याग कर चुके हैं , जो स्पृहारहित , ममतारहित और निरहंकारी हैं , ऐसे पुरुष की परमशान्ति या परब्रह्म को प्राप्त होते हैं।